कहा जाता है कि बद्रीनाथ की मूर्ति शालग्रामशिला से बनी है। यह मूर्ति चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। सिद्ध, ऋषि और मुनि इसके प्रमुख अर्चक थे। जब बौद्धों का बोलबाला हुआ तो वे इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा करने लगे।
उत्तर में हिमालय घाटी में स्थित बद्रीनाथ हिंदुओं का प्रमुख तीर्थस्थल माना जाता है। मंदिर में नर-नारायण की मूर्ति की पूजा की जाती है और अखंड दीपक जलाया जाता है, जो ज्ञान की अपरिवर्तनीय रोशनी का प्रतीक है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस दिन बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं, उस दिन रावल साड़ी पहनकर और पार्वती का श्रृंगार करके ही गर्भगृह में प्रवेश करते हैं। इसके बाद पूजा की जाती है और उसके बाद ही दरवाजे खोले जाते हैं.
इसी मान्यता के चलते पहाड़ों में लोग रावल को भगवान की तरह पूजते हैं। वे उन्हें पार्वती का रूप भी मानते हैं। पहाड़ों में जो लोग रावल की पूजा नहीं करते उन्हें अच्छा नहीं माना जाता।
इसलिए बद्रीनाथ के दो और नाम दिये गये हैं। बद्रीनाथ और बद्रीविशाल. विशेषज्ञों के अनुसार बद्रीनाथ क्षेत्र में बद्री (बैर) के जंगल थे, इसलिए इस क्षेत्र में स्थित विष्णु की मूर्ति का नाम बद्रीनाथ पड़ गया।
बद्रीनाथ धाम में पुजारी केरल के ब्राह्मण होते हैं। मंदिर में पूजा करने का अधिकार सिर्फ उन्हें है. हिमालय के मंदिरों में सुदूर दक्षिण से पुजारी नियुक्त करने की यह परंपरा शंकराचार्य द्वारा शुरू की गई थी, जो आज तक निर्बाध रूप से जारी है।
रावल का चयन बद्रीनाथ मंदिर समिति द्वारा ही केरल के नंबूदरीपाद ब्राह्मणों में से किया जाता है। उनकी न्यूनतम योग्यता यह है कि वे वहां के वेद-वेदांग विद्यालय से स्नातक हों और कम से कम शास्त्री की डिग्री हो तथा ब्रह्मचारी भी हों।
साल के छह महीने जब भारी हिमपात के कारण मंदिर के कपाट बंद कर दिये जाते हैं तब रावल वापस अपने घर केरल चले जाते हैं और कपाट खुलने की तिथि आते ही वापस बद्रीनाथ आ जाते हैं।
यहां एक कुंड है जिसमें हमेशा गर्म पानी आता रहता है। देखने में ये पानी खौलता हुआ दिखाई देता है लेकिन छूने पर यह बहुत ही कम गर्म होता है। लोग इसें स्नान करने के बाद ही बदरी नाराण की पूजा करते हैं।
बद्रीनाथ धाम की यात्रा से जुड़ी संपूर्ण जानकारी और मंदिर से जुड़ी रोचक बातें